Friday 28 May 2021

फेमस ढोला मारू ( Dhola maroo ) के प्रेम का इतिहास जानिये.

 ढोला मारू ( Dhola maroo ) History :-



ढोला मारू (dhola maaroo) रा दूहा ग्यारहवीं शताब्दी मे रचित एक लोक-भाषा काव्य है. जो की मूलरूप से दोहों में रचित हे इस काव्य को सत्रहवीं शताब्दी मे कुशलराय ने इसमें कुछ नई चौपाईयां जोड़कर इसका विस्तार दिया। इसमे राजकुमार ढोला (dhola) और राजकुमारी मारू (maroo) की प्रेम प्रसंग (प्रेम कहानी) का एक तरह से वर्णन किया गया है. Rajasthan की लोक कथाओं में बहुत सी प्रेम कथाएँ फेमस है. पर इन सब मे ढोला मारू प्रेम विशेष तरीके से लोकप्रिय रही है इस गाथा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आठवीं सदी की इस घटना का नायक ढोला राजस्थान में आज भी एक-प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है और प्रत्येक पति-पत्नी की सुन्दर जोड़ी को ढोला-मारू(dhola maaroo) की उपमा दी जाती है. यही नहीं आजकल भी लोक गीतों में स्त्रियाँ अपने पति को ढोला के नाम से ही पुकारती है, ढोला शब्द लगभग पति शब्द का प्रयायवाची ही बन चूका है. राजस्थान की ग्रामीण स्त्रियाँ आज भी विभिन्न मौकों पर ढोला-मारू के गीत बड़े चाव से गाती है.

इस कहानी के नायक ढोला नरवर के राजा नल का पुत्र था जिसे इतिहास में ढोला व साल्हकुमार के नाम से जाना जाता है, ढोला का विवाह बचपन में जांगलू देश (बीकानेर) के पूंगल नामक ठिकाने के पंवार राजा पिंगल की पुत्री मारवणी के साथ हुआ था. उस वक्त ढोला तीन वर्ष का मारवणी मात्र डेढ़ वर्ष की थी. इसीलिए शादी के बाद मारवणी को ढोला के साथ नरवर नहीं भेजा गया. बड़े होने पर ढोला की एक और शादी मालवणी के साथ हो गयी. बचपन में हुई शादी के बारे को ढोला भी लगभग भूल चूका था. उधर जब मारवणी प्रोढ़ हुई तो मां बाप ने उसे ले जाने के लिए ढोला को नरवर कई सन्देश भेजे. ढोला की दूसरी रानी मालवणी को ढोला की पहली शादी का पता चल गया था उसे यह भी पता चल गया था कि मारवणी जैसी बेहद खुबसूरत राजकुमारी कोई और नहीं सो उसने डाह व ईर्ष्या के चलते राजा पिंगल द्वारा भेजा कोई भी सन्देश ढोला तक पहुँचने ही नहीं दिया वह सन्देश वाहको को ढोला तक पहुँचने से पहले ही मरवा डालती थी.

इसीलिए इस बार क्यों न किसी चतुर ढोली को नरवर भेजा जाय जो गाने के बहाने ढोला तक सन्देश पहुंचा उसे मारवणी के साथ हुई उसकी शादी की याद दिला दे. जब ढोली नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सम्मुख जाकर गाकर सुनाना है.

ढोली (गायक) ने मारवणी को वचन दिया कि वह जीता रहा तो ढोला को जरुर लेकर आएगा और मर गया तो वहीँ का होकर रह जायेगा.

चतुर ढोली किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुँचने में कामयाब हो गया और रात होते ही उसने ऊँची आवाज में गाना शुरू किया. उस रात बादल छाये हुए थे और अँधेरी रात में बिजलियाँ चमक रही थी , झीणी-झीणी पड़ती वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में ढोली ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में ढोली की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा तो ढोला झुमने लगा तब ढोली ने साफ़ शब्दों में गाया
"ढोला नरवर सेरियाँ, धण पूंगल गळीयांह।"

गीत में पूंगल व मारवणी का नाम सुनते ही ढोला चौंका और उसे बालपने में हुई शादी की याद ताजा हो आई. ढोली ने तो मल्हार व मारू राग में मारवणी के रूप का वर्णन ऐसे किया जैसे पुस्तक खोलकर सामने कर दी हो. उसे सुनकर ढोला तड़फ उठा.
ढोली (गायक) पूरी रात गाता रहा. सुबह ढोला ने उसे बुलाकर पूछा तो उसने पूंगल से लाया मारवणी का पूरा संदेशा सुनाया.

आखिर ढोला ने मारवणी को लाने हेतु पूंगल जाने का निश्चय किया पर मालवणी ने उसे रोक दिया ढोला ने कई बहाने बनाये पर मालवणी उसे किसी तरह रोक देती. पर एक दिन ढोला एक बहुत तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मारवणी को लेने चल ही दिया और पूंगल(जो कि बीकानेर मे था ) पहुँच गया. मारवणी ढोला से मिलकर ख़ुशी से झूम उठी. दोनों ने पूंगल में कई दिन बिताये और एक दिन ढोला ने मारूवणी को अपने साथ ऊंट पर बिठा नरवर जाने के लिए राजा पिंगल से विदा ली. कहते है रास्ते में रेगिस्तान में मारूवणी को सांप ने काट खाया पर शिव पार्वती ने आकर मारूवणी को जीवन दान दे दिया. आगे बढ़ने पर ढोला उमर-सुमरा के षड्यंत्र में फंस गया, उमर-सुमरा ढोला को घात से मार कर मारूवणी को हासिल करना चाहता था सो वह उसके रास्ते में जाजम बिछा महफ़िल जमाकर बैठ गया. ढोला जब उधर से गुजरा तो उमर ने उससे मनुहार की और ढोला को रोक लिया. ढोला ने मारूवणी को ऊंट पर बैठे रहने दिया और खुद उमर के साथ अमल की मनुहार लेने बैठ गया. दाढ़ी गा रहा था और ढोला उमर अफीम की मनुहार ले रहे थे,

उमर सुमरा के षड्यंत्र का ज्ञान ढोली की पत्नी को था वह भी पूंगल की बेटी थी सो उसने चुपके से इस षड्यंत्र के बारे में मारूवणी को बता दिया. मारूवणी ने ऊंट के एड मारी,ऊंट भागने लगा तो उसे रोकने के लिए ढोला दौड़ा, पास आते ही मारूवणी ने कहा - धोखा है जल्दी ऊंट पर चढो और ढोला उछलकर ऊंट पर चढ़ा गया. उमर-सुमरा ने घोड़े पर बैठ पीछा किया पर ढोला का वह काला ऊंट उसके कहाँ हाथ लगने वाला था. ढोला मारूवणी को लेकर नरवर पहुँच गया और उमर-सुमरा हाथ मलता रह गया.
नरवर पहुंचकर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है. मारुवणी व मालवणी के साथ आनंद से रहने लगा.

'डोला-मारू':-


इसी ढोला का पुत्र लक्ष्मण हुआ,लक्ष्मण का भानु और भानु का पुत्र परम प्रतापी बज्र्दामा हुआ जिसने अपने वंश का खोया राज्य ग्वालियर पुन: जीतकर कछवाह राज्यलक्ष्मी का उद्धार किया। आगे चलकर इसी वंश का एक राजकुमार दुल्हेराय राजस्थान आया जिसने मांची, भांडारेज, खोह, झोटवाड़ा आदि के मीणों को मारकर अपना राज्य स्थापित किया उसके बाद उसके पुत्र काकिलदेव ने मीणों को परास्त कर आमेर पर अपना राज्य स्थापित किया जो देश की आजादी तक उसके वंशजों के पास रहा। यही नहीं इसके वंशजों में स्व.भैरोंसिंहजी शेखावत इस देश के उपराष्ट्रपति बने व इसी वंश के श्री देवीसिंह शेखावत की धर्म-पत्नी श्रीमती प्रतिभापाटिल आज इस देश की महामहिम राष्ट्रपति है। 'डोला-मारू' की कथा राजस्थान की अत्यन्त प्रसिद्ध लोक गाथा है। इस लोकगाथा की लोकप्रियता का अनुमान निम्नलिखित दोहे से
लगाया जा सकता है, जो राजस्थान में अत्यन्त प्रसिद्ध है.

सोरठियो दूहो भलो, भलि मरवणरी बात।
जोवन छाई धण भली, तारांछाई रात।।

ढोला को रिझाने के लिए दाढ़ी (ढोली) द्वारा गाये कुछ दोहे -

आखडिया डंबर भई,नयण गमाया रोय ।
क्यूँ साजण परदेस में, रह्या बिंडाणा होय ।।

आँखे लाल हो गयी है,रो रो कर नयन गँवा दिए है,साजन परदेस में क्यों पराया हो गया है.

दुज्जण बयण न सांभरी, मना न वीसारेह ।
कूंझां लालबचाह ज्यूँ, खिण खिण चीतारेह ।।

बुरे लोगों की बातों में आकर उसको (मारूवणी को) मन से मत निकालो | कुरजां पक्षी के लाल बच्चों की तरह वह क्षण क्षण आपको याद करती है | आंसुओं से भीगा चीर निचोड़ते निचोड़ते उसकी हथेलियों में छाले पड़ गए है.

जे थूं साहिबा न आवियो, साँवण पहली तीज ।
बीजळ तणे झबूकडै, मूंध मरेसी खीज ।।

यदि आप सावन की तीज के पहले नहीं गए तो वह मुग्धा बिजली की चमक देखते ही खीजकर मर जाएगी । आपकी मारूवण के रूप का बखान नहीं हो सकता। पूर्व जन्म के बहुत पुण्य करने वालों को ही ऐसी स्त्री मिलती है.

नमणी, ख़मणी, बहुगुणी, सुकोमळी सुकच्छ ।
गोरी गंगा नीर ज्यूँ , मन गरवी तन अच्छ ।।

बहुत से गुणों वाली, क्षमशील, नम्र व कोमल है , गंगा के पानी जैसी गौरी है ,उसका मन और तन श्रेष्ठ है.

गति गयंद,जंघ केळ ग्रभ, केहर जिमी कटि लंक ।
हीर डसण विप्रभ अधर, मरवण भ्रकुटी मयंक।।

हाथी जैसी चाल, हीरों जैसे दांत,मूंग सरीखे होठ है | आपकी मारवणी की सिंहों जैसी कमर है ,चंद्रमा जैसी भोएं है।

आदीता हूँ ऊजलो , मारूणी मुख ब्रण।
झीणां कपड़ा पैरणां, ज्यों झांकीई सोब्रण।।

मारवणी का मुंह सूर्य से भी उजला है ,झीणे कपड़ों में से शरीर यों चमकता है मानो स्वर्ण झाँक रहा हो ।

नोट:- दोहे का भावार्थ “रानी लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत” द्वारा लिखित पुस्तक "राजस्थान की प्रेम कथाएँ" से लिए गए है.

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