Sunday 8 July 2018

राजपूत चन्द्रवंश और अग्निवंश की उत्पत्ती भाग:-2

एक अनुभूति के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति अनिकुण्ड से हुई है । कहा जाता है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया, तब समाज में बड़ी गड़बड़ी फैल गई और लोग कर्तव्य भ्रष्ट हो गये इससे देवता बड़े दु:खी हुए और आाल पप्त पर एकत्र हुए जहां एक विशाल अग्निकुण्ड था । इसी अग्निकुण्ड से देवताओं ने प्रति हारों पंवारों सोलकियों उर्फ चालुक्य तथा चौहानों को उत्पन्न किया, अतएव वे अग्निवंशीय कहलाये । इस अनुभूति को स्वीकार करने में एक बहुत बड़ी कठिनाई यह पड़ती है कि यह अनुभुति १६०० वीं शताब्दी की है, इससे पूर्व इसका कोई पता नहीं चलता। है । अतएव यह चारणों की कल्पना की उपज मात्र प्रतीत होती है । कुछ इतिहासकारों ने अग्नि के सामने जो हिन्दू समाज में एक देवता माना जाता है, अरवों तथा तुर्की से देश की रक्षा की शपथ ली थी। आतएव ये अग्निवंशी कहलाये । परंतु अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पत्ति मानने वालों की संख्या बहुत कम है।

डॉ० ईश्वरीप्रसाद जी ने इसे कोरी कल्पना बतलाते हुए लिखा है कि यह कथा स्पष्ट कोरी गल्प है और इसे सिद्ध
करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, यह ब्राह्मणों द्वारा उस जाति को अभिजातीय सिद्ध करने का प्रयास प्रतीत होता है । जिसका समाज में बड़ा ऊँचा स्थान था और जो ब्राह्मणों को मुक्त-हस्त होकर दान दिया करती थी, जिन्होंने बड़े उत्साह के साथ उस उदारता का बदला लेने का प्रयत्न किया है ।


श्री महाबीर भाई उपनाम स्वामी वीरेश्वराना, सवषयी। शाहजहां पार्क, आगरा ।

ये अपनी टिप्प्णी में यह विचार प्रकट करते हैं कि जब परशुराम जी द्वारा अन्यायी क्षत्रियों का विनाश कर दिया तो उस समय राज्य संचालन में बड़ी बाधा उत्पन्न हो गई थी, जगह जगह अराजकता फैल गई । देवता बड़े दु:खी हुए । उस समय देश के महान् ऋपियों ने शेष बचे हुए क्षत्रियों की आलू पर्यत पर अग्नि परीक्षा की थी । उस अग्नि परीक्षा में शेष बचे हुए क्षत्रियों में जो क्षत्री जिसजिस श्रृंखला में श्रेष्ठ उत्तीर्ण हुए थे उन्हें उसी प्रकार की पदवी देकर चार भागों में विभाजित कर दिया । वह क्षत्री अग्निवंशी चौहान, पंवार,प्रतिहार और सोलंकी उर्फ चालुक्य कहलाए । वेदों में ईश्वर की उपासना अग्नि को ही उसका प्रतीक मानकर की गई है। जैसे ऋग्वेद का एक मन्त्र है ।अग्निमीले पुरोहितम् ।


चौहानों की उत्पत्ति अग्निकुल व सूर्यवंश की तरह क्षेत्रों में पाई जाती है अतएय पाठकों के लाभार्थ क्रमश: दोनों ही प्रकार के प्रमाण लिखकर प्रकाशित किए गए हैं । संसार में वहीं धर्म स्थिर रह सकता है जो ससार के लिए उपयोगी हो। जो लोग अपनी ही धार्मिक पुस्तक को अमूल्य पुस्तक समझते हैं उन्हें स्वार्थी कहना चाहिए। वे संसार को जानबूझक र, सत्य मार्ग पर चलने वालों के बाधक बनकर धर्म को अधर्म बनाते हैं व स्वधर्म के विरोधी हैं और संसार को धोखे में रख कर अन्धकारमें रखना नाहते हैं । ईश्वर के सामने ऐसे लोग दण्ड के भागीदार बनेंगे। देश की वर्तमान दशा को देख कर प्रत्येक वि नारवान सू रुप स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता है, कि जाति का जीवनलक्ष्य इर अग्निवेश ( सूर्य ) की एक उपासना है । वैदिक धर्म ही मानवसमाज का सार्वजनिक धर्म रहा है । जिसके सभी सिद्धान्तों को क्षत्रिय जाति सदा से स्वीकार करती चली आ रही है, उसी का नाम सनातन धर्म है । सभी कालों (युगों) और देश की सभी जातियों में इस धर्म की प्रसिद्धि रही है और इसी धर्म की दो शक्तियाँ सूर्यवंश व चन्द्रबंश के नाम से विख्यात हैं, जिनकी अनेक शाखाएँ व प्रशाखाएँ ने जन्म ग्रहण करके क्षत्रिय जाति को प्रचण्ड शक्ति दी है । परन्तु समय को कर।स गति को न रोक सकने के कारण ही अग्निवंश ( सूर्य ) को अपना स्वरूप धारण करना पड़ा है। । अग्निवेश के संचालक देव व देवियों ने सनातन धर्म की रक्षा करने के लिए राजस्थान के आलू पर्वत के शिखर पर इस वंश की प्रतिष्ठा की थी । इस सम्बन्ध में काफी अध्ययन किया गया। है और अध्ययन जारी है । वास्तव में अग्निवंश है या नहीं । अन्य वंशावली लेखकों ने इसे प्रमणित करने के स्पष्ट संकेत दिए हैं । कुछ साहित्यकार इसका खण्डन भी कर रहे हैं, जैसी भी स्थि ति है तमाम लेखकों के वि नार इस पुस्तक द्वारा आपके सामने रखने की कोशिश की गई है और इसका निर्णय भी पाठकों पर ही छोड़ दिया गया है। छत्तीस कुल-यह समझने योग्य प्रसन है कि जिस बंशावली का अवलोकन किया गय। है,

उसमें छत्तीस कुलों (३६) का वर्णन पाया गया है और उसी को आधार मानकर साहित्यकारों ने बंशावली लिखी है । ३६ कुल क्या हैं और कैसे बने हैं, उनका भी वर्णन मिलता है । सब कुछ लिखने के बाद भी पाठकों की शका शेष रह जाती है, यह समय व बुद्धि का भ्रम है । वास्तव में ३६ कुल हैं जिसको सभी इतिहासकारों ने स्वीकारा है और (छत्तीस कुल भेद) शब्द से ही क्षत्रीय शब्द की उत्पत्ति प्रतीत होती है । जैसाकि इस दोहे से पष्ट है.

दस रवि सों, दस चन्द्र सों, द्वादश ऋषी प्रमान ।
चार हुत।सन यश सों, यह छत्तीस कुल बखान ॥


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